आस Anupama Ravindra Singh Thakur
आस
Anupama Ravindra Singh Thakurचिर निद्रा से बाहर आओ
हे! गजानन गणपति,
अब तो हम पर तरस खाओ।
सुनसान पड़े हैं
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर,
हर पल रौनक
होती थी जहाँ पर,
कई भिक्षुक हाथ फैलाकर
भक्तजनों से दया दृष्टि पाकर
पलते थे आपके भरोसे पर,
फूल-फल बेचने वाले
दो पैसों के लिए
यात्रियों पर थे निर्भर।
आपका वह विशाल विस्तृत प्रांगण
हो गया है निर्जन,
खत्म हो गई सारी रौनक
छाया है केवल सूनापन।
एक दो रुपए पाने को
उठते थे जो हाथ,
आज बैठे हैं मसोसकर मन
भूख से बिल बिलाते बच्चे
भक्तों के पीछे -पीछे दौड़ते,
जो मिलता उसे मुँह में डालते।
आज आपके द्वार भी बंद हुए
क्या ये सब भूखे पेट ही सोए,
जहाँ अच्छे-अच्छे कंगाल हुए
वहाँ इनके क्या हाल हुए?
बेबस और लाचार होकर
ये कीड़े मकोड़ों की भांति
मरने को लाचार हुए।
अब तो हे! दुखहर्ता
आप के आगमन की
आस है,
आप संकटमोचन,
आप विघ्नहर्ता है
भुखमरी, अपमृत्यु का
श्राप मिटाकर,
पुनः सामान्य जीवन लौटाओगे
पल रहा मन में यह विश्वास है।