तेरा मानव बनना बाकी है!  Narendra Verma

तेरा मानव बनना बाकी है!

Narendra Verma

मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है!
छोड़ पिया के आँगन को, झुरमुट में फिसलना बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।
 

जीवन की खुशबू ओढ़ कर, सब ताल-तलइया झूम कर,
उस चांद से आगे पैर पसारे, सूरज की किरणें चूम कर,
अपनी ही धरा को किंचित सोचे, पर-सदन निहारे घूम कर,
मानवता के संजीवन तट से, स्व-संधान संवरना बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।
 

निहित बल के तुम क्षीण रथी, अल्प शक्ति के अभिमानी,
सफल, समर्थ, सुधार, सचेत, सचमुच सबके तुम अज्ञानी,
सौम्य धरा पर निष्ठुर कोठी, जलपात जहर तो नीरस पानी,
नहीं, इतने कहने से ओ विज्ञानी! प्रण-यान तुम्हारा बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।
 

स्वायत्त की कारीगरी ढालकर, कारागार से बाहर देखा है,
सच में अब हम क़ैद हैं यहाँ, भले चाँद को छू कर देखा है,
"कोरोना" से जो डरे, क़ैद रहे, मुक्त पंछी को कहते देखा है,
गलियारों से जो उठे झूमकर, एक सफ़र सुहाना बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।
 

धरती चलो पार करें पर, पैरों का उड़ना समझ के परे,
भूकंप, सुनामी, बाढ़, बवंडर, घाव सभी हैं हरे के हरे,
सुधा-सी वसुधा विष की गोला, कोरोना से तो सब डरे,
पड़कर वसुधा में एक बीज, सौ बीज बनाना बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।
 

स्पंदन के इन भाव-जलधि में, अपना भी छोटा रिश्ता है,
कोरोना में जो क़ैद है घर में, बस बचा वही फरिश्ता है,
क्या करूँ, अब रोक भी ना पाऊँ, मर्जी उनकी आहिस्ता है,
रूठे इन एहसासों के रिश्ते, इसमें कुछ गरमाहट बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।
 

छोड़ पिया के आंगन को, झुरमुट में फिसलना बाकी है,
मानव रे मानव अब भी, तेरा मानव बनना बाकी है।

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