सपना Peeyushi Jha
सपना
Peeyushi Jhaये जहाँ वो जहाँ, सब अपना जहाँ बनाना है,
बन के पंछी चुलबुली सी, अंबर में खो जाना है।
फैला के अपने पंख विशाल, अनंत सागर को निहारना है,
उड़ते-उड़ते जब थक जाऊँ पकड़ सूरज की लालिमा को,
उसके गोद मे समाना है।
सोचती हूँ कभी-कभी, क्या होता अगर होती तितली,
फूलों के संग चुप-चुप, कानों मे फुसफुस करना है।
अगर होती मैं वृक्ष विशाल, खुशियों की छाया बनाना है,
पेंगुइन बन के बरफों पे, थिरक-थिरक ताल बजाना है।
एक समय था बचपन का, सपनों से था भरा-भरा,
उन सपनों को ज़िंदा कर, ज़िन्दगी वहीं बिताना है।
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प्रस्तुत कविता में यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि मनुष्य जब बच्चा होता है तो कितने सारे सपने देखता है और अपने आसपास के वातावरण में खो जाता है परंतु जब वह बड़ा हो जाता है, अपने आगे के जीवन में व्यस्त हो जाता है, तो अपने सभी सपनों को धीरे-धीरे भूल जाता है। उन्हीं सपनों को हमेशा जीने की कोशिश इस कविता में की गई है।