निराशा Abhishek Pandey
निराशा
Abhishek Pandeyलेकर आया हूँ जीवन रण से
करूँ कहाँ ये हार विसर्जित?
टूट चुका अब अंतर्मन है
किसे कहूँ ये व्यथा अपरिचित?
इस निर्मम जीवन यात्रा में
पग चलते-चलते शिथिल पड़े,
सुप्त वेदना जाग उठी
अब डब-डब चक्षु बिफर पड़े।
पहले भी टूटा था बार अनेकों
पर नहीं टूटकर बिखरा था,
गिर गिरकर उठता जाता था
हर संकट से लड़कर निखरा था।
पर ये हार जरा अलबेली है
दुर्जय है, कठिन पहेली है,
सपनों के नाजुक तारों से
निर्दय होकर ये खेली है।
झोंके संग लिए ये आई
आशा के दीप बुझाने को,
हर्षित, पुष्पित अभ्यन्तर को,
अश्रु रजनी में कहीं डुबाने को।
झोंके झेल नहीं पाए
आशा के झिलमिल दीप बुझे,
प्राणों के करुणा क्रन्दन से
अभ्यन्तर में उठते गीत बुझे।
क्या यही निराशा लम्बी होकर
जीवन में छा जाएगी?
सुख-खाद रहित जीवन-लतिका
कब तक यूँ मुरझाएगी?
अपने विचार साझा करें
जब हम जीवन में विजय रथ पर बैठकर यात्रा करते हैं तब हमारा उत्साह चरम पर होता है परन्तु जब हारों का सिलसिला शुरू होता है तो हार दर हार हमारा उत्साह मंद होता जाता है और फिर अगर कोई बड़ी हार हमारे जीवन में आती है तो हमारा जोश पूर्णतः क्षीण हो जाता है और हम एक अनंत निराशा के गर्त में गिर जाते हैं जिससे निकलना हमें असंभव सा लगने लगता है। इस कविता में इसी निराशा को अपने शब्दों से व्यक्त करने का मैंने प्रयास किया है।