आदमखोर  Prakhar Pandey

आदमखोर

Prakhar Pandey

नहीं कोलाहल नहीं शोर-गुल
रहा टहल गली में शार्दूल,
हों गोरू, शुनक या नर, नभचर,
नहीं देख इसे कोई व्याकुल!
 

घुटक तिरस्कार, मूंद नख-प्रखर,
पड़े अचरज में वनराज बड़े,
यहाँ मन है निडर, तन स्थावर,
कल होते थे जो भाग खड़े।
 

यह काया प्रचंड, भर नभ-गर्जन,
करती अनेक बस्तियाँ निर्जन,
ले रक्त प्रताप-कुंड के आनंद
करे पुनर्मंडित वन-सिंघासन।
 

भय काया की, शह माया की,
क्या छोड़ मनुज कुछ पाया है?
हिम-खोह, चैत्य में झुलस, भटक,
ये लौट गृहस्थ को आया है।
 

फिर क्यों है फाटक खुले हुए?
नहीं अग्नि-दुर्ग की ज्वाला है,
हे अरण्यनी, ये कैसा स्वाँग?
निष्काम, विरक्त गौ-ग्वाला है।
 

सहसा अंबर द्युतिमान हुआ
और गूंज उठी नभवाणी,
बोली देवी, सुन जिज्ञासु
यहाँ सूख चुका है पानी!
 

चुप मेघ, मंद झरनों का शोर,
जुड़ गए घाट के दोनों छोर,
जन्मे पशु-पंजर चारों ओर
बिन रिमझिम पंख फैलाए मोर।
 

तपती मेदिनी, धँसती उपज
जल नीचे लुढ़का बीस गज!
मिट्टी को निगले बालू है
शुष्क जिह्वा, सख्त तालु है।
 

लुप्त सरिताओं के साँप कहाँ?
निर्जल हैं कमंडल, श्राप कहाँ?
सूने हैं चित्रफलक बिन आबरंग,
शिव-जटाओं से है ओझल गंग।
 

जल में है निहित जीवन संपूर्ण,
बिन आचमन मंत्रजाप अपूर्ण,
बिन जल निष्फल अमृत या गरल,
न जीवन सहज, न मृत्यु सरल।
 

नीर-तृषित की एक कामना
वारि मिले या वार मिले,
कर मलिन रक्त का विनिमय
प्राणों को संघार मिले!
 

सुन व्यथा शेर हाथों को जोड़
बोला, वन को चलता हूँ माता,
देता हूँ इन्हे नियति पे छोड़
आदमखोर हूँ, मुर्दा नहीं खाता!

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