आशा-दीप Abhishek Pandey
आशा-दीप
Abhishek Pandeyगहन तिमिर के वृहत क्षितिज में
एक धुंधला सा दीपक दीख रहा है,
विषम हवा के झोंकों में
झूम-झूमकर रजनी को वह तीक रहा है।
कभी जले बिन्दु सदृश,
कभी ज्वाला सा वो भड़कता है,
कभी लगे कि बुझा-बुझा,
फिर भी वो निकल डगरता है।
सतत प्रवाहित झोंकों में
कभी आरे की उसको ओट धरूँ,
कभी बाती का नवनिर्माण करूँ
कभी उसमे तेल नवीन भरूँ।
इस सतत गामिनी रणगंगा में
अंतिम मेरी पतवार यही,
अवलंबित जिस पर आशाएँ समस्त
बुझने कैसे दूँ दीप वही।