अदृश्य दुश्मन !  Surya Pratap Singh

अदृश्य दुश्मन !

Surya Pratap Singh

अंजुमन में छाई हुई है वीरानी,
दे रहा दौर नित कैसी-कैसी निशानी,
मौत के आगोश मे सिमटती हुई ज़िंदगियाँ,
मौत के खेल से हो रही है सभी को हैरानी।
 

हर तरफ है सिर्फ मौत का ही मंजर,
वायरस इक फेफड़ों को कर रहा जर्जर,
श्वास पर लग गया है अजब सा पहरा,
बेबस हर इन्सां दिख रहा ठहरा-ठहरा।
 

है अदृश्य दुश्मन बहुत ही प्रबल,
घेर लेगा तुम्हें हों आप चाहे जितना सबल,
हुई है गलती क्या हम इंसानों से हे विधाता,
दे रहे हाे दण्ड क्यों समझ में न आता।
 

कुदृष्टि क्यों की है प्रकृति ने,
बरप रहा है क्यों इतना कहर,
कहीं ये आगाज तो नही प्रलय का,
कहीं प्रकृति कर न रही हो सन्तुलन।
 

उम्मीद की किरणें दिख रही हैं कुछ
मगर अँधेरा अभी भी घना छा रखा है,
करो नित्य प्रार्थना ठहर जाओ घरों में
शायद प्रकृति की यही मंशा है।

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