आकाश का अंहकार SANTOSH GUPTA
आकाश का अंहकार
SANTOSH GUPTAएक दिवस अभिमान में, आकाश ने धरती से
कह डाला, ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ कृति मैं,
नील वर्ण से सुशोभित करता हूँ मैं जग को,
देता हूँ आरोहण हर नभचर व विहग को।
तू नील अगर, मैं हरियाली हूँ,
शीतल जल से भरी प्याली हूँ,
थलचर मुझ पर ही पग रखते हैं,
धरती को तो सब माँ कहते हैं।
सितारे-चंदा, मुझ पर ही तो सजते हैं,
मै काला होता हूँ, तभी तो ये चमकते हैं,
मंडराते मेघों से पूछो कहाँ वे रहते हैं,
शरण से मेरी ही तो झमाझम बरसते हैं।
बादल तो है सागर की माया,
सागर तो है मुझमे समाया,
जिस रंग पर इतना इतराते हो,
वो पहचान तो सूरज से पाते हो।
तू क्या है, बस मिट्टी का एक गोला,
कुपित नभ ने दंभ भाव से बोला,
हर मानव का सपना मुझको छूना है,
कामना में अपने मुझको चुना है।
अवश्य अभिलाषा का तुम ही हो सार,
पर ऊपर चढ़ने की मैं हू एक आधार,
पैरों की प्रवृत्ति तो मिट्टी की है,
पर तुममे भरा है अत्यंत अहंकार।
मुस्कराकर व्योम को समझाया वसुंधरा ने
ज्ञान के चक्षु खोल उसे जगाया निंद्रा से,
ऊपर रहकर दृष्टि तुम्हारी निम्न हो गई है,
हम दोनों की महत्ता कबसे भिन्न हो गई है।
प्रकृति ने ही हम दोनों को रचा है,
भाव की माला में दोनों को गूँथा है,
थल स्थितिज और गगन गतिज है,
मिलकर परस्पर बने क्षितिज हैं।
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आकाश, जिसे आसमान भी कहते हैं, उसे हर कोई सफलता का पर्याय कहता है। आसमान की बुलंदी को छूना, जिसे संसार का सर्वश्रेष्ठ कार्य माना जाता है। इन्हीं बातों के आवेश में एक दिन आकाश को अहंकार हो जाता है और धरती से अभिमान में कुछ बातें कहता है जो धरती को कहीं न कहीं अप्रिय लगती हैं और धरती उसके अहंकार को शांत करने के लिए संसार का सत्य उसे स्मरण कराती है।