तुम सी कोई और नहीं  Kaushik Kashyap

तुम सी कोई और नहीं

Kaushik Kashyap

आज की जो शाम थी,
वो चार रोज़ पहले ही
तुमको देख, स्वयं से
एक ओर ढल गई।
 

तन बसंत मन अनन्त
और सरल हैं केश भी,
है मुख स्वछंद सा रचा
हो कायाकल्प सुंदरी।
 

तुम आग की आवाज़ हो
और साँझ का चिराग भी,
है गंगा की विशालता
और अंकुरी कनिष्ठ सी।
 

यदि ज़िन्दगी से बड़ी
कोई बात है नहीं
तो तुम्हारे वक्ष पर
सर यदि मेरा हुआ
तो प्राण क्या चीज है,
उठा लो सारी अर्थियाँ
मैं तब भी मुख से एक बार
बोलूँगा उफ्फ्फ नहीं।
 

तुम मेरी हो कल्पना
जो आदि कल्प से रही,
नहीं है कोई और अब
तो कैसे ढूँढू मैं अभी।
 

नई कोई जो तुम सी ही
या हो तुम्हारी हूबहू,
या ऐसी कोई अक्स ही रहे
हो जिससे मेरा रूबरू
मैं ऐसी कोई जुस्तजू
से दूर हूँ वही सही।
 

बात मेरी है इतनी सी
कि ऐसी कोई कल्पना,
कि जिसमें तुम नहीं हुई
वो कल्पना है व्यर्थ ही।
 

मेरी सारी ज़िन्दगी
की नीव में हो तुम बसी,
एक तुम हो सिर्फ तुम,
न था कोई, न है कोई,
और होगा भी कोई नहीं।

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