धर्म और युयुत्सु  SANTOSH GUPTA

धर्म और युयुत्सु

SANTOSH GUPTA

दृष्टिपात कर रहा था संञ्जय के लोचन से,
धृतराष्ट्र कर रहा था अवलोकन वर्णन से।
अठारह अक्षोहिणी सेना का समर था,
सात पाण्डवों और कौरवों का ग्यारह था।
असंतुलन बस एक से ही संतुलित हुआ था,
युयुत्सु का पक्ष जब परिवर्तित हुआ था।
नारायणी सेना से सशक्त हो गया था जो,
अशक्त हो गया था वो, बस एक ही तीर से
निकल गया था जब वो कौरवो की भीड़ से,
अधर्म की तूणीर से।
रुधिर सा वह बह गया था दुष्कर्म के शरीर से,
एकनिष्ठ ही विमुक्त हुआ था अपकर्म की रीढ़ से।
वैश्य पुत्र था वो झेला उसने दंश था,
दासी पुत्र था वो पर धृतराष्ट्र का ही अंश था।
युद्ध को उत्सुक तो कुरु का ही वंश था,
ध्वंस था कुरु कुल का, हस्तिना का अस्त था।
विजयी था वह रण का नहीं वह परास्त था,
अदम्य उसका तेज था स्वभाव से विरक्त था।
कौरव्य तो कौरवो का भ्रात विभक्त था,
रक्त था क्षत्रिय का संग्राम में सक्रिय था,
धार्तराष्ट्र था पर, शकुनि उसे अप्रिय था।
अखण्डित था वह मामा की क्रिया से,
अविचलित था वह दुरित विद्या से।
संध्या थी उद्विग्न, जब मूक हुई सभा थी,
स्त्रीत्वहरण से हृदय में व्यथा थी।
तब कौरवों में वो अपवाद बना था,
विकर्ण संग उसने प्रतिवाद रचा था।
हस्तिना ने किया था रणभूमि रुप धारण,
नहीं था संग्राम, वह कौरवों के कारण।
धर्मियों ने दिया अधर्मियों का साथ था,
भीष्म, द्रोण और कर्ण का ही हाथ था।
युयुत्सु ने किया धर्म का सम्मान था,
धर्म की छोर से उसे युद्ध आसान था।
आह्वान धर्मयुद्ध का जब हुआ था रणभूमि में
उद्घोषण भीष्म का हुआ था मनोभूमि में।
दल निश्चित हुआ था, धर्म परायण हुआ था,
दुष्कृत पक्ष से पलायन हुआ था।
पाण्डवों का जय जब गुंजित हुआ था,
मृत सकलऽ कौरवो में वह एकल जीवित था।
विक्षिप्त था धृतराष्ट्र, गांधारी को आघात था
प्राणसंग पुत्र से स्वल्प संताप था।
अंत में मुखाग्नि का संस्कार किया था
धर्म के निर्वाहन से अधिकार पाया था।
धर्म के ही हेतु, परिजनों को त्यागा था
केशव के इसी ज्ञान से, पार्थ भी जागा था।
धागा है नैतिकता का, मर्यादा का निशान है
धर्म पर नहीं तो, किस पर फिर ध्यान है
धर्म है जहाँ वही तो स्वाभिमान है।
धर्म ही तो होता मानव की पहचान है,
गीता का यही ज्ञान है, गीता का यही ज्ञान है।

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