मैं पागल हूँ! SUBRATA SENGUPTA
मैं पागल हूँ!
SUBRATA SENGUPTAदुनिया के कुछ ऐसे लोगों से
मुझे कोई गुबार नहीं है,
और न ही कोई शिकायत है,
वे जो मुझे पागल कहते हैं,
हाँ, मैं पुरज़ोर स्वीकार करता हूँ।
मैं मुखौटा लगाकर
अभिनय नहीं कर सकता हूँ,
और न ही तमाशबीन बनकर
सच्चाई का गाला दबोच सकता हूँ,
मैं जैसा हूँ, मैं वैसा ही रहना चाहता हूँ।
सच को झूठ में, झूठ को सच में
रंगने की कला से अनिभिज्ञ हूँ,
पर, वास्तव के सागर में गोते लगाकर
सत्य और असत्य में फर्क कर सकता हूँ,
सच को सच, झूठ को झूठ
मुक्त कंठ से व्यक्त करता हूँ,
हाँ, मैं पागल हूँ, पागल हूँ।
दीनजनों के सेवा के छल में,
देवदूत के मुखौटे में,
छुपे राष्ट्र के बाघ में,
उगे वृक्षों को और जयचंदों के समूहों को
निर्मूल करना चाहता हूँ।
वास्तव के सागर में गोते लगाकर,
वास्तव के खाई को पाटकर,
वास्तव को वास्तव के
धरातल में लाना चाहता हूँ।
मुखौटे में छुपे नराधमों को,
मोर पूँछ लगाने वाले कौओं को,
उसके वास्तव के आँगन में लाना चाहता हूँ,
हाँ, मैं पुरज़ोर स्वीकार करता हूँ,
कि मैं पागल हूँ, पागल हूँ।