जिस पेड़ के नीचे आँगन में SANTOSH GUPTA
जिस पेड़ के नीचे आँगन में
SANTOSH GUPTAजिस पेड़ के नीचे आँगन में
हर रोज खेला करते थे,
वो पेड़ तो है आँगन में, पर
उस पेड़ तले वो छाँह नहीं।
जिस कुएँ के खारे पानी से
तन-मन सारा धुल जाता था,
वह कुआँ भी है आँगन में, पर
कुछ होता अब साफ नहीं।
जिस छत पर सर्दी में
रोज़ धूप सेका करते थे,
वह धूप भी है वहीं, पर
धूप में अब वह ताप नहीं।
जिन खिड़कियों से बारिश की
बूंदों को स्पर्श किया करते थे,
बूंदें अब भी गिरती हैं, पर
स्पर्श में वह उत्साह नहीं।
वह चूल्हा जो जलता था
जलता है अब भी, पर
उस आग से निकलता
अब वह धुआँ नहीं।
जिन रोटियों के पकने की
खुशबू घर को महकाती थी,
वो रोटियाँ भी पकती हैं, पर
उस महक की हवा नहीं।
जिस बिस्तर पर आँखो में
कब नींद आ जाती थी,
उस बिस्तर पर सोने में
वह आराम मिलता नहीं।
वह रात का आकाश सारा
जो चमकता था चंद्रिका से,
चंदा तो दिखता है छत से
पर अब वह प्रभा नहीं।
दीवाली में दीपों से
सजता है चौखट अब भी,
पर दीपों की ज्योति से
अब होता वह उजाला नहीं।
वह स्नेह जो था घर में
वह प्रेम जो था सब में,
कदाचित है अब भी, पर
अब मृदुता की गंगा नहीं।
लौट कर जब भी आता हूँ
खुलता है दरवाजा अब भी,
पर, दरवाजे के पीछे
अब होती मेरी माँ नहीं।