आज़ादी का जश्न  Aman Kumar Singh

आज़ादी का जश्न

Aman Kumar Singh

हर साल आज़ादी का
हम जश्न मनाते हैं,
फिर एक पल में ही हम सब
इसे भूल क्यों जाते हैं?
क्यों लड़ते हैं हम खुद से
अपनों से बैर क्यों पालें,
क्यों याद नहीं रख पाते
क्या छोड़ गए मतवाले?
 

इस देश के चैन–ओ–अमन के
हम ही हैं रखवाले,
जब हम ही इसको छीनें
तो फिर देश को कौन संभाले?
कभी भीड़ बनी आंदोलन
तो आज़ादी घर आई,
जब भीड़ ही हमको मारे
तो फिर ये तिरंगा कौन संभाले?
 

हर बार हमारा सैनिक
जब देश पे जान लुटाता है,
क्यों तब ही हमारी आँखों में
राष्ट्र–प्रेम जग पाता है?
इसे हर–पल, हर–दिन, हर–दम,
क्यों संभाल नहीं रख सकते,
हम जान लुटा नहीं सकते
पर क्यों कर्तव्य निभा नहीं सकते?
 

इस साल फिर ऐसा हो न
ये हाल फिर ऐसा हो न,
सरहद पर जा नहीं सकते
संसद में तो लड़ सकते हैं।
देश में नफरत के फिर
बादल हैं जो घिरे,
उन्हें साथ में हम सब मिलकर
हिम्मत से हटा सकते हैं।
 

कुछ खुदगर्जों के खातिर हम
अपनों से क्यों कट जाते हैं,
एक देश में ही रहकर हम
मज़हब में क्यों बँट जाते हैं?
हर साल आज़ादी का हम
जब जश्न मनाते हैं,
फिर जश्न में ही हम सब
इसे भूल क्यों जाते हैं?

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