धुँआ सा गुज़रता है VIMAL KISHORE RANA
धुँआ सा गुज़रता है
VIMAL KISHORE RANAयह शांति का शोर पुनः आशाओं पर मंडरा रहा,
उजली-उजली किरणें बीती, तम शनैः शनैः गहरा रहा,
फिर से रजनी का राज कोई राज़ उजागर करता है,
कुछ दृष्टि का प्रयास है, पर धुँआ सा गुज़रता है।
रविकर की लालिमा, जीवंतता का पर्याय,
आशाओं की प्रेरणा, सौन्दर्य का निकाय।
यों शुक:-पिक: उन्मुक्त हो, चारों दिशाओं मे झूम उठे,
सहर्ष सहस्रों स्वर, शुभ प्रातः में गूंज उठे।
उस पौध में धीरे-धीरे इक कली उभरती सी,
भँवरों और फूलों की प्रीत धीरे-धीरे बढ़ती सी,
नीर के कल-कल दरिया को सुख का आभास कराती है,
यों बाग में हर इक ध्वनि ही अदृश्य रंग भर जाती है।
शांत है वो सब मंज़र, सब अंत शांत जान पड़ता है,
कुछ दृष्टि का प्रयास है, पर धुँआ सा गुज़रता है।
यहाँ अब कोई किरण नहीं, बस रजनी का वास है,
भँवरों-फूलों का अस्तित्व, बस यादों का परिहास है,
दरिया की शुष्क धरा देखो, जैसे तो नीर था ही नहीं,
परिंदे सब चले गए, इनको भी धीर था ही नहीं।
कल तक थी ध्वनि जो कानों में, वो सुनने को अब तरस गए,
कुछ बरसेगा अब पता नहीं, लगता है बादल बरस गए।
शांति के शोर में सब नितांत शांत ही उभरता है,
कुछ दृष्टि का प्रयास है, पर धुँआ सा गुज़रता है।
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प्रस्तुत कविता, प्रकृति की सुंदरता को शब्दों में बाँधने का एक प्रयास है। साथ ही साथ यह इसके क्षय होने पर व्यथा का आभास भी है। यही दृश्य मनुष्य के अन्तर्मन का भी है। मनुष्य अंतरमन का संवरना व अवसाद में जाना भी प्रकृति की एक उपमा ही है। मनुष्य की अनुभूतियों को प्रकृति के माध्यम से छूने का भी प्रयास है।