मैं एक काया निर्जर  VIMAL KISHORE RANA

मैं एक काया निर्जर

VIMAL KISHORE RANA

मैं तो एक काया हूँ निर्जर,
मुझमें क्या आब-चमक देखो,
एक सूखा हुआ जलाशय हूँ,
मुझमें क्या लहक-बहक देखो,
मैं तो एक काया हूँ निर्जर........
 

बहती पवन के संग-संग
उड़ने का स्वपन लिए हुए,
उड़ते रहे हम दिल ही दिल,
इच्छा का दर्पण लिए हुए,
बारिश की कल्पना में तन पर,
जीवन को तरसती भूमि था,
रह गया हूँ इक भूमि बंजर,
मुझमें क्या हरित दमक देखो,
मैं तो एक काया हूँ निर्जर........
 

जो टूट गया, जो बिखर गया
उसका भी मोह अब छोड़ चला,
अब नहीं किसी की आशा है,
सुख-दुख का बंधन छोड़ चला।
जीवन की अविचल पटरी पर,
समय की रेल का आवागमन
बस यही रह गया है सब-कुछ,
अब नहीं मचलता मेरा मन,
अब नहीं बहकता मन दर-दर,
मुझमें क्या तड़क-भड़क देखो,
मैं तो एक काया हूँ निर्जर........

शिल्प कोई सजाने को
अब नहीं तराशना चाहता हूँ,
थक गया हूँ मैं कहीं खोज-खोज,
अब नहीं तलाशना चाहता हूँ।
जीवन में स्थिर रहने की,
आदत सी होती जाती है,
चुप रहने की, पल बहने की,
फितरत सी होती जाती है।
अब नहीं कोई अभिलाषा है
जो विचलित करती रहे मुझे,
अब नहीं कोई परिभाषा है
जो भ्रमित करती रहे मुझे।
बहना, उड़ना वो कल्पना,
सब अतीत के गड्ढे में दबा,
साधारण से साधारण विचारधाराओं को अपना,
रह गया हूँ मैं इक कला जर्जर,
मुझमे क्या नई तरंग देखो,
मैं तो एक काया हूँ निर्जर,
मुझमें क्या आब-चमक देखो,
एक सूखा हुआ जलाशय हूँ,
मुझमें क्या लहक-बहक देखो,
मैं तो एक काया हूँ निर्जर........

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