वह खिंचवाती फोटू सीमा भुनेश्वर सिंह
वह खिंचवाती फोटू
सीमा भुनेश्वर सिंहवह खिंचवाती फोटू,
देखा मैंने उसे
गहरी झील, खाई और बीच पथ पर।
कहीं चहुँ ओर छायादार,
झीनी-झीनी धूप, बैठी वह सोच विचार,
श्यामल तन, केश जैसे बलखाती नागिन।
कभी स्वीट सेल्फ़ी, तो कभी हाई पिक्सेल के साथ
पोज़ पर पोज़ देती, अनेक प्रकार
कर सखियों को परेशान,
फिर कहती ला एक बार देखूँ
कैसी-कैसी खींची हैं फोटू।
इक 'परफेक्ट क्लिक' के खातिर,
सह लेती धूप, खेल लेती खतरे जान,
लगाने को डीपी,
करने को स्टेटस अपडेट,
मुँह बिचकाती, भौंहे तान लेती,
बनाती-बिगाड़ती चेहरे के रंग-आकार,
और कहती, बस आखिरी बार
जान खींच ले यार,
है बस ये लास्ट फोटू।
वह खिंचवाती फोटू,
देखा मैंने उसे
गहरी झील, खाई और बीच पथ पर,
वह खिंचवाती फोटू।
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तकनीकी सुविधाओं से लैस, उत्तर आधुनिकता के दौर ने मानवीय जीवन की निजता का 'वेबसमाजीकरण' कर दिया है। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य कवि निराला जी की कविता 'वह तोड़ती पत्थर' की स्त्री अपने जिजीविषा के लिए कड़ी धूप में अट्टालिका पर प्रहार करती हुई दिखाई देती है। और अब बदलते युग में स्त्री अपने जीवन को 'कैमरे में कैद' कर विश्वपटल पर 'पोस्ट/अप टू डेट' करने की होड़ में वास्तविक खुशियों को दरकिनार करती हुई दिखाई देने लगी है। इस नयेपन ने कविता के विषय-भाषा-शब्दों को भी नया आयाम दिया है। इस संदर्भ में प्रस्तुत है मेरी स्वरचित कविता।