क्या काफी न था SANTOSH GUPTA
क्या काफी न था
SANTOSH GUPTAख्वाब, कोशिशें, उम्मीदें, सब्र
टुकड़े इनके समेटे, मगर
बदले में जो मिले तजुर्बे
क्या ये काफी न था?
जीने की तैयारी में,
जीते रहे ज़िन्दगी को
जिंदगी बिताने को
क्या ये काफी न था?
पाने की होड़ में
खोया बहुत कुछ,
पर जो खोया
वो भी पाया ही था,
जो रह गया पास
क्या वह काफी न था?
नाकामयाबी भी बेशक
हुई जिंदगी में अक्सर,
मौजूदगी इम्तिहानों में
क्या काफी न था?
इंतज़ार उस दिन का
करते रहे ज़िन्दगी भर,
इंतज़ार में जीना ही
क्या काफी न था?
फूलों की जगह पर
काँटों की चुभन,
उन घावों पर लगाना
वक़्त का मरहम,
क्या काफी न था?
मिली नहीं मंज़िलें
रास्ते कितने चले,
सफर का लुत्फ ही
क्या काफी न था?
शिकायतें क्यों हैं
ज़िन्दगी से बहुत,
ज़िन्दगी में ज़िन्दगी ही
क्या काफी न था?
अपने विचार साझा करें
अक्सर हमें अपनी ज़िन्दगी से कई प्रकार की शिकायतें होती हैं। हमारी तमन्नाओं का कभी अंत नहीं होता और इसी कशमकश में हम हमेशा दुखी रहते हैं। कहते हैं कभी मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता, किसी को जमीं नहीं मिलती तो किसी को आसमां नहीं मिलता। ज़िन्दगी जैसी भी हो, उसे स्वीकार करने में ही ज़िन्दगी का स्वाद है, आनंद है। कुछ ऐसे ही विचारों को केंद्रित करती है मेरी यह रचना।