जीवन का ध्येय Upendra Prasad
जीवन का ध्येय
Upendra Prasadजीवन इतना सरल नहीं, जीवन उतना गरल नहीं,
लेकिन जितना समझ रहा है, उतना भी विरल नहीं।
जलते सूरज को देखो, क्या दर्द किसी से कहता है?
जीवन देने को जगत में, दिनभर तपते रहता है।
उगते सूरज देख प्राणी, पुलकित हो हर्षाता है,
इसके पीछे सूरज का सब, दु:ख-दर्द छुप जाता है।
उगने का कोई हर्ष नहीं, डूबने का कोई गम नहीं,
लेकिन जितना समझ रहा है, उतना भी दुर्गम नहीं।
ऊँचे पर्वत के शिखर को, देखते जी घबराता है,
साहस देखो अरुणिमा जो, सहज फतह कर जाता है।
एक-एक तेरे कदम राह में, दूरी कम कर जाता है,
हौसला हो तो आखिरी कदम, उस शिखर को लाँघ भी जाता है।
कर्म करना, धैर्य रखना, यह भी इतना सुलभ नहीं,
लेकिन जितना समझ रहा है, उतना भी दुर्लभ नहीं।
तूफानों में कैसे पौधे, छिन्न -भिन्न हो जाते हैं,
मन में चाहत बढ़ने की तो, उठ खड़े हो जाते हैं।
टूटी हुई टहनी को देखो, बिखर-बिखर गिर जाते हैं,
आशा है जो नई टहनी का, वहीं उग फिर जाते हैं।
टूटने का कोई लय नहीं, गिरने का कोई भय नहीं,
लेकिन जितना समझ रहा है, उतना भी संशय नहीं।
हताशा हावी होती है, आत्मविश्वास के खोने से,
निराशा व्याप्त होती है, धैर्य तुम्हारे खोने से।
मंज़िल तेरी तय है तो, डरो नहीं विफलता से,
रोक न पाया दृढ-प्रण को, कोई उसकी सफलता से।
त्याग दो आलस्य, कमर कस लो, राह तेरा मगरूर नहीं,
लेकिन जितना समझ रहा है, मंज़िल उतना दूर नहीं।
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यह कविता उन युवाओं को ध्यान में रखकर रची गई है, जो मंज़िल के करीब पहुँच कर अपना धैर्य खो देते हैं और हताशा तथा निराशा के शिकार हो जाते हैं। अगर थोड़ी-सी प्रेरणा उन्हें समय पर मिल जाए तो वे आसानी से अपनी मंज़िल प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं। आशा है कि यह कविता उन ऊर्जावान युवाओं के लिए प्रेरणा-स्रोत साबित होगी।