फिर से कह दो वो ही कहानी Kunal Kumar Roy
फिर से कह दो वो ही कहानी
Kunal Kumar Royहर रात की हर एक बात साथ
थामे शरीर वो कोमल हाथ,
उन बंद झरोखों के है पार
जिनपे लगाए बरसात घात।
निर्भीक हुआ एक और संबंध
भयभीत हुए वो नेत्र बंद,
और एक हुए शरीरों में
तीव्र हुआ वो प्रेम मंद।
"और ज़ोर लगा दरवाज़ों पे
क्यूँ करते हो तुम शोर कहो?"
"ये प्रेम करेगा भस्म तुम्हे,
इस जान से अब तुम दूर रहो।"
ना बंद हुआ फिर कोई शोर
घर के अब हैं वो चारों ओर,
मृदंग बजाता एक राकस
और घोर नाचते काल मोर।
मैं दंग हुआ थोड़ा भयभीत,
कैसे लूँ इस संकट को जीत!
क्या मानूँ मैं कि रक्षा अब
ना रही एक संबंध रीत..?
जब मिला ना कोई समाधान
और उलझन फिर बढ़ हुई घमासान,
तो देखा प्रिय ने नेत्र भर
और कहा मुझसे फिर अंत जान,
"फिर से कह दो वो ही कहानी,
मौत जहाँ थी आनी जानी.."
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ये कविता उन प्रेमियों के बारे में है जिनके साथ रहने पे समाज को आपत्ती है। मेरी कल्पना में ये दो प्रेमी एक घर मे छुपे हैं और इन्हें चारों ओर से भीड़ ने घेर रखा है। वो इन्हें अलग करने के लिए इनकी जान लेने से भी नहीं चूकने वाले। निकलने का कोइ रास्ता न देख और अन्त समीप जान, प्रेमिका प्रेमी से वो कहानी सुनाने को कहती है जिसमें मृत्यु आम बात हो और जिसमें उसका कोई भय न हो।