शर्म  Kunal Kumar Roy

शर्म

Kunal Kumar Roy

दो साल पहले मैंने बनाया,
इसके सृजन में ही जीवन बिताया,
वक़्त दिया, मेहनत दी
अपना खून पसीना बहाया।
 

समय बीता,
मेहनत रंग लाई,
अपनी पहचान गँवा के
इसकी पहचान बनाई।
 

आज दो साल बीत गए हैं,
सोचा जा के मिल आऊँ,
चमचमाती बनी पड़ी थी,
थोड़ा और करीब जाऊँ।
 

मैं उसे छू ना सका,
भीड़ बहुत थी,
कही पाँव भी ना रख सका,
तपिश बहुत थी।
 

हिम्मत की, और आगे बढ़ा,
सोचा जा के पूछूँ हाल,
कहीं से आवाज़ आई,
एक संक्षिप्त सवाल।
 

देखा मुड़ कर मैंने पीछे,
वो सड़क मुझे घूर रही थी,
जैसे मैं कोई अंजाना था,
क्या यही मेरी संतान बनी थी?
 

"मैले कुचले चीथड़ों में सिमटे
ए पथिक ...क्या तुझे इल्म नहीं?
मैं रईसों के चलने की चीज़ हूँ"
तेरा बोझ कैसे सहूँ?"
 

मैंने अपनी पहचान बताई,
अपना उसका संबंध बताया,
पुरानी बातें याद दिलाकर
उससे अप्नत्व जताया।
 

सुनकर उसने आँखें तरेरी,
अब सन्तान नहीं वो मेरी,
गुरूर चढा था उसके सर
सब नहीं चलते थे उस पर।
 

"शर्म आती है मुझे"
ये थे उसके अंतिम शब्द,
"तुम्हारे मुझ पर चलने पे"
पड़ा रहा मैं, निष्क्रिय, स्तब्ध!

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