भ्रष्ट मन हैं  SANTOSH GUPTA

भ्रष्ट मन हैं

SANTOSH GUPTA

भ्रष्ट मन है उद्गम मेरा
मैं प्रलोभन का प्रवाह हूँ,
सागर से बढ़कर गंतव्य मेरा
मैं एक अनंत चाह हूँ।
 

छिपा हुआ एक प्रचलन हूँ
अंतःकरण का सड़न हूँ,
उत्क्रमण हूँ किसी का तो
किसी का मैं हनन हूँ।
 

पुस्तको में ना ढूँढो मुझे
दुर्बुद्धी का अध्याय नहीं,
नाता नहीं विवेक से मेरा
संज्ञान से हिताई नहीं।
 

कागज़ों पर नहीं हूँ
पर हर जगह मैं हूँ,
ऊपर नहीं नीचे मैं हूँ
इस तरह नहीं, उस तरह मैं हूँ।
 

सिखाने की पाठशाला नहीं
ज्ञानवान हैं मेरे फिर भी बहु,
भीतर तुम्हारे ही पनपता हूँ
ज्ञान के मेरे तुम स्वयं ही गुरू।
 

हिस्सा अखंड हूँ मन का तुम्हारे
रोग प्रचंड हूँ मानसिकता का,
ध्वंस करता आत्मज्ञान तुम्हारा
सिद्धांतों का मैं हूँ हत्यारा।
 

लिप्सा मेरी जननी है
मैं लोभ की संतान हूँ,
भटकने पर मिलता हूँ
मैं एक भ्रमित समाधान हूँ।
 

निराधार आधार हूँ
निष्ठा का व्यापार हूँ,
जन्मा तुम्हारे मस्तिष्क में ही
तुम्हारे मस्तिष्क का ही संहार हूँ।
 

हलाहल हूँ वर्तमान का
लगता सुधा के समभार हूँ,
जकडा हूँ मन को तुम्हारे
तुम्हारे मन का विकार हूँ।
 

पूछो हृदय से तुम
क्या मैं मुक्त विचार हूँ,
पराजय स्वीकारते हो
जब मैं करता प्रहार हूँ।

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