राह दिखलाऊँगा मैं Anurag Ankur
राह दिखलाऊँगा मैं
Anurag Ankurबढ़ चलो आकाश तक तुम सूर्य से मिल लो गले,
हो भले ही आग कैसी क्यों न सारे पर जलें,
लक्ष्य की तो चेतना में आग होती है सदा,
फिर कहाँ तुम ढूँढते हो छाँव के पीपल हरीले।
पथ से हो अंजान, तो आगाह कर जाऊँगा मैं,
राह दिखलाऊँगा मैं, राह दिखलाऊँगा मैं।
त्याग दो ये वेदनाएँ व्यर्थ की सारी व्यथाएँ,
केवल समर्पण, प्रेम कैसा ? भ्रम है ये सारी कथाएँ,
झूठ हैं ये भ्रम सभी, सच क्या है बतलाऊँगा मैं,
राह दिखलाऊँगा मैं, राह दिखलाऊँगा मैं।
है ये जग मिथ्या, मिथ्या है यहाँ की क्रूरता,
खो रहे सम्मान सारे, खो रही है वीरता,
और फिर कब तक बेचारी धीरता को कवि लिखेगा,
शेष ना है प्रेम तृण भर, बिक रही है धीरता।
तुम मिलो अनुराग से तो बाँह फैलाऊँगा मैं,
राह दिखलाऊँगा मैं, राह दिखलाऊँगा मैं।