माँ की दहलीज़ SMITA SINGH
माँ की दहलीज़
SMITA SINGHस्वप्न माफ़िक़ है आज
मेरी माँ के घर की दहलीज़,
अपना घर, अपनी माँ का आँगन
ना रहा क़रीब।
बच्चों में ही अब देख रही
बिताया हुआ अपना बचपन,
सुन उनकी प्यारी, भोली, तोतली ज़बान,
हो गयी हूँ उनमें ही मगन।
कैसा कठिन रिवाज है कैसा है यह बंधन
छोड़ आँचल माँ का अपना लिया नया नाता,
आजीवन निभाने चल पड़ी
जब हो गया मेरा गठबंधन।
नवजीवन, नौ महीने की परिणति,
जन्मदात्रि माँ की देन।
अपनी माँ को छोड़ चली
चली निभाने साथ वचन,
जीवन को मिली नई डगर
नया घर अपरिचित नगर।
हर चेहरा अनजाना था
डरती थी ज़ुबान भी,
निडरता किधर कोने में गुम गयी
सहज ना थी ससुराल में।
माँ के आँगन में हुई ठिठोली
अब आवरण गम्भीरता वाली ओढ़ ली,
पता ही ना लगा
ना जाने कब बड़ी हो गयी।