मातृतुल्य हिंदी  SMITA SINGH

मातृतुल्य हिंदी

SMITA SINGH

प्रवासी हिंदुस्तानी भारत की संस्कृति के प्रतिनिधि,
हिंदी भाषा के सूत्रधार,
देशवासी क्या, विदेशी भी हो रहे फ़नकार।
 

शिखर हमारा जितना भी हो ऊँचा,
कर्मभूमि चाहे हो परदेश,
कितनी भी ली हों बेहिसाब उड़ान
देश छोड़, जब अजनबी देश प्रस्थान
मन में ख़याल, सफल रहा प्रयास।
 

अंतर्मन में फिर भी एक ज़बरदस्त द्वन्द चल रहा,
क्या हिंदी भाषी कुछ लोग मिलेंगे?
जब देश छोड़ करेंगे विदेश प्रस्थान,
सुविधा, दुविधा आज लगे एक समान।
 

सपने संजोए, पद प्रतिष्ठा हेतु,
मंज़िल पाने को लालायित,
चमक दमक से भरी ज़िंदगी,
अरमान लिए बना रहे आशियाना,
अपनापन अपनी भाषा में छलके
जन मन गण गाने वालों की भाषा।
 

गलियाँ चाहे विदेश की हों
पर भाषा तो स्वदेश की ही हो,
तभी लगे यह अनूठा संगम,
अनोखा और बहुत सुहाना।
 

प्रशंसक बने रहें, अपनी भाषा से करें प्यार,
इसे समझना, सहेजना निहायत अनिवार्य,
आने वाली पीढ़ियाँ भी रखे संजोए
करें मातृतुल्य मातृभाषा से प्यार।

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