ढलता सूरज केशव मेहरोत्रा
ढलता सूरज
केशव मेहरोत्राआज मैंने ढलता सूरज देखा
अँधेरे को रोशनी निगलते देखा,
डूबते हुए सूरज को मैंने
आसमाँ सुनहरा करते देखा।
कुछ काले से बादल थे आए
पूरे आसमाँ पर वो छाए,
ज़ोरदार वर्षा करके वो
अपने घमंड में कुछ मुस्काए।
पर मैंने ढलता सूरज देखा
काले मेघों को सुनहरा करते देखा,
सोने सा चमक उठा आसमाँ
जब मैंने रौशनी फैलते देखा।
वो काले बादल टिक न पाए
कितनी ही घोर वर्षा वो लाए,
उनके सुनहरे अंशों को देखा,
हाँ मैंने सूरज ढलते देखा।
अब काला हुआ पड़ा है आसमाँ
रात का शुरू हो चला कारवाँ,
पर सुबह को मैंने अब जगते देखा
जब मैंने सूरज ढलते देखा।
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जब ढलते हुए सूरज को मैंने एक घायल सैनिक की तरह अँधेरे बादलों को हराते देखा तो ऐसी वीरता को देखकर मन गदगद हो गया। भले ही अब उसके प्रस्थान का समय आ गया था, पर फिर भी अपनी किरणों से वह उन काले बादलों को ऐसे भेद रहा था कि जैसे दर्शा रहा हो कि जीतेगी तो हमेशा रौशनी ही।