हे वृक्ष ! Arun Kumar Singh
हे वृक्ष !
Arun Kumar Singhहे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
जिसके बगैर पृथ्वी सूनी है,
मानव सभ्यता जिसके हत्या के खून से सनी है,
चिरैया जहाँ अपना घर ढूँढ़ती है,
उनका सब कुछ उजड़ जाने के बाद वो यही कहते हैं,
हे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
कभी जिन्होंने फल तोड़े होंगे तुम्हारे टहनियों से
आज तोड़ रहे वो उन्हीं टहनियों को,
पृथ्वी तुम्हारे बिना अधूरी है,
क्यों नहीं समझते तुम इस त्रासदी को।
चुप्पी इंसानों की समझ आती है पर,
हे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
हरियाली फैलाना चहुँ ओर
बिना तुम्हारे कितना कठिन है,
नीले जहाँ में मिश्रित वृक्षों की सुंदरता
बना देती इस संसार को रंगीन है,
सूना रह जाएगा पृथ्वी का हरेक कोना तुम्हारे बिना फ़िर भी
हे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
अविश्वसनीय सहिष्णुता का प्रदर्शन अब बंद कर दो,
इंसानों को अपने ऊपर असंख्य
अत्याचार करने मत दो,
क्यों नहीं तुम माता पृथ्वी की व्यथा देख चिल्ला उठते,
हे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
मानव की मानवता
न जाने कहाँ खो गई है,
प्रकृति से छेड़छाड़ करने की रेखा
अब पार हो गई है।
मानव न आवाज़ उठा सकेंगे
अब तुम ही कुछ तो बोलो,
इस संसार की ऑंखे खोलो,
हे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
हे वृक्ष तुम चुप क्यों हो?
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पृथ्वी एक ऐसा गृह है जिसको वृक्षों का वरदान प्राप्त है। वृक्ष एक वरदान की तरह ही तो हैं जिससे हमें तपती हुई धूप में सुहावनी छाया मिलती है, जोर की भूख लगने पर मीठे फ़ल खाने को मिलते हैं और इसी तरह से वृक्ष हमें बिना कुछ माँगे ही सब कुछ दे देते हैं। वर्तमान समय की विडंबना ऐसी है कि इंसान नि:स्वार्थ वृक्षों को अपने स्वार्थ के लिए काटने पर तुले हुए हैं। कवि इस कविता के माध्यम से वृक्षों से आग्रह कर रहा है कि वो अपने लिए आवाज उठाएँ, तब जबकि इंसान बेजुबान हो चुके हैं।