विरह  Ravi Panwar

विरह

Ravi Panwar

खुश्क कंठ, जब नीर पुकारे,
वीर हृदय भी मन से हारे,
चंचल चित्त कहीं दूर भ्रमण कर,
लौट के आता पास तुम्हारे,
अब सुख-दुःख सारे साथ प्रिय के,
ये क्षण है "विरह" के।
 

जब-जब चंद्र, व्योम से झाँके,
पूछता मुझसे अक्सर आके,
रात से लेकर भोर उषा तक,
क्यूँ तू मुझको एकटक ताके,
अब खोल दे धागे मन की गिरह के,
ये क्षण है "विरह"के।
 

मिलन था बैठा दूर अकेला,
कब बीतेगी विरह की बेला,
फिर घोर घटा ऐसी थी छाई,
रवि ने जैसे ली अंगड़ाई,
और बरस पड़ा बूंदों का मेला,
अब ज्वार है उठते इसी तरह के,
ये क्षण है "विरह" के।

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