गुज़र गए बाबूजी Lakshmi Agarwal
गुज़र गए बाबूजी
Lakshmi Agarwalजीवित तो हैं पर लगता है
जैसे कि गुज़र गए बाबूजी,
सुनहरे दिनों की याद को
जैसे कि बिसर गए बाबूजी।
याद नहीं आता कब किसने
बैठकर हाल उनका पूछा,
वटवृक्ष सी जो कभी शीतल
छाया सबको निःस्वार्थ देते थे,
देख प्रसन्न मुख संतान का
ख़ुशी से जो न अघाते थे,
अपनों की उपेक्षा से लगता है
टूटकर बिखर गए बाबूजी,
जीवित तो हैं पर लगता है
जैसे कि गुज़र गए बाबूजी।
अम्मा का भी न है अब सहारा
सुत भी भया निष्ठुर पथहारा,
बिटिया का पथ भी है निहारा,
पर सब तो देख रहे राह आज
कि हो जाए जल्दी से बँटवारा।
बँटवारे की पीड़ा ने फिर दर्द
बाबूजी का कितना बढ़ाया है,
हाय! यह कैसा पुत्र-धर्म आज
अपनी संतान ने निभाया है।
बगिया के पुष्प सम प्रेम से
जिसे आजीवन सिंचित किया
उसी निर्मोही ने देखो आज
सबकुछ से कैसे वंचित किया,
जीवित तो हैं पर लगता है
जैसे कि गुज़र गए बाबूजी।
अकेलेपन से बाबूजी आज भी
कितना कतराते हैं,
भुलाने को अम्मा की यादें
टीवी से मन बहलाते हैं।
ऐनक चढ़ी आँखों पर
दृष्टि धूमिल हो गई,
पर अम्मा की मुसकाती छवि
बिन ऐनक भी साफ झलकती है।&
बेचैन हैं आज भी उनकी यादों में
खोये हैं अम्मा से किये वादों में,
आहत हैं आज अपनों के इरादों से।
झंझावात सा मन में रोज उठता है
इस अकेलेपन में मन तड़पता है,
देख चलचित्र या गीतों को
खालीपन अपना मिटाते हैं।
पर इनसे बहलता कहाँ मन
इनके सहारे अपनी पीड़ा छिपाते हैं।
जीवित तो हैं पर लगता है
जैसे कि गुज़र गए बाबूजी।