कुछ बिछाए थे सपने  SANTOSH GUPTA

कुछ बिछाए थे सपने

SANTOSH GUPTA

कुछ बिछाए थे सपने कुछ चैन मोड़कर,
कुछ जोडे़ थे ख्वाब कुछ नींद तोड़कर।
 

विश्वास के तकिये पर मन को रखकर,
धैर्य के बिस्तर पर पलकें खोलकर।
 

उजाला फैलाकर, अंधेरा बुझाकर,
घनघोर रातों को सबेरा पहनाकर।
 

अदृश्य में भी प्रतिछाया पाकर,
परिश्रम की गर्मी को ठंडक बनाकर।
 

था संयम संजोया, आराम बिखेरकर,
सब्र की लोरी गाकर-सुनाकर,
रखे थे मैंने कुछ कोशिशों के चादर।
 

कोशिशों के चादर पर अरमान समेटकर,
उम्मीदों को सिरहाने रखकर लेटकर।
 

कुछ छिपाए थे आँखों में, कुछ बाहर छोड़कर,
कुछ बिछाए थे सपने, कुछ चैन मोड़कर।

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