गिलहरी  Hrishita Singh

गिलहरी

Hrishita Singh

एक छोटी सी गिलहरी
थोड़ी काली और सुनहरी,
प्राण उसके जैसे विह्वल
एक जगह ठहरे न इक पल।
 

मेरे घर में भी थी एक बेटी
भाईयों में सबसे छोटी,
इसकी तरह ही घोर चंचल
उन्माद मचाती थी प्रतिपल।
 

कोई गुड़िया कहे है उसको
कोई कहे है उसको गिलहरी,
अपने बाबा की थी दुलारी
कहता था मैं उसे राजकुमारी।
 

क़िस्मत की निकली अभागी
प्राण हर ले गया शिकारी,
देखा तो खून से वो सनी थी
किसी भेड़िए के हाथ लगी थी।
 

अस्त हुआ जीवन का सूरज
खो दिया मैंने अपना धीरज,
जब-जब देखूँ मैं ये गिलहरी
याद आती मुझको अपनी बेटी।
 

जैसे मुझसे वो नाराज़ है
आती बस इक आवाज़ है,
बाबा अब जन्म ना देना कोई भी बेटी
तुम भी पाल लेना इक गिलहरी।

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