आ जाओ क़रीब  SMITA SINGH

आ जाओ क़रीब

SMITA SINGH

आ जाओ क़रीब
क्यों रहते हो गुमसुम उदास,
मैं हूँ अभी भी यहाँ,
आ जाओ क़रीब
मरी नहीं हूँ अभी भी ज़िंदा हूँ,
यादों को तुम्हारे दिल में कर दफ़न
उसके ही सहारे जी रहीं हूँ,
वो अलग बात है कि थोड़ी दूर जा बसी हूँ।
 

क्यों रहते हो वीराने में
मैं आज भी हूँ यहाँ,
ख़ुशी से भरी एक प्रेमकथा
सुनने-सुनाने अपनी व्यथा
फिर लिखने मिटाने रेत पर
उड़ते देखने धूल को,
अमिट लिखते हैं नई रवानी
दरवाज़े पर आस लगाए
आज भी निरंतर तक रही हूँ।
 

क्यों रहते हो मैखाने में
इतने क्यों हो बेख़बर,
परिंदों को देखा है
जो उड़ते रहते हैं देश-विदेश,
शाख़ की साख ग़ज़ब झूमती है
जब लौट आते हैं परिंदे,
वैसे ही तुम भी आओ ना
मैं तो आज भी उसी शाख़ को पकड़ खड़ी हूँ।
 

क्यों रहते हो गुमसुम अकेले,
मूक टकटकी लगा
क्यों तकते हो,
दरवाज़ा खुला पड़ा है
बस आ जाओ,
कुछ अनकही बात कहनी है।
आज भी हूँ तुम्हारी
चलो यादों का लिफ़ाफ़ा खोलें
ख़्वाब वही आँखों में लिए
बरबस बस राह तक रही हूँ।
 

तुम्हारे लिए बेहद बेपनाह
बे-तलब अहसास छुपा ना था तुमसे,
याद करो मेरे मर मिटने की अदा
जिस पर रहते थे तुम फ़िदा,
तुम तो ना जाने कहाँ चले गए
तोड़ गए धागे का कोना,
मैं तो उन टूटे धागों को
जोड़ने की ख्वाहिश लिए
आज भी सूनी आँखों से
राह सूनी तक रही हूँ।
 

कह दो बस दिल की बात
छिपाओ नहीं कोई हमसे राज़
मैं तो तुम्हारी कभी थी हमराज़।
जिन्दा हूँ आस में तुम्हारी
आख़िरी ख्वाहिश लिए,
आज भी पुरानी किताब
पलट रही हूँ और सिमट रही हूँ।

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