दिल के दरवाज़े SMITA SINGH
दिल के दरवाज़े
SMITA SINGHमैं अपने दिल के दरवाज़े खोलती हूँ,
सड़क पर उड़ रही धूल
और चेहरे पर पड़ रही धूल,
धुआँ-धुआँ सा कोहरा सा,
परत कई, राज़ अनगिनत ख़ंजर लगे थे जैसे शूल।
दिल के दरवाज़े को खोल देखने की आज करूँगी भूल,
कितनी ही यादें समेट रखीं थी,
बरस के बरस बीत गए थे,
कश्मकश थी मिटा चुकी थी ज़िंदगी में गई थी घुल।
इसमें कोई दो राय नहीं है
सामंजस्य की गाड़ी चलाते,अस्तित्व कब की गई थी भूल।
आज मुखर हो बोल पड़ी है
कब तक ज़िंदगी में घुलती रहेगी
कब तक समेटेगी ?
सीमा रेखा से आगे बात आन पड़ी
अब चलो आज बात करो दिल की खुल।