गाँव Rakesh Kushwaha Rahi
गाँव
Rakesh Kushwaha Rahiजब भी गाँव याद आया मुझे
बचपन का पल याद आया मुझे,
कितना प्यारा था अपना गाँव
शहर में रहकर समझ आया मुझे।
वो पोखर व वो नदियों का पानी
जिनका नहीं था कोई सानी,
बरगद की शीतल छाँव सुहानी
माँ की लोरी, दादी की कथा निराली।
सभी घर थे अपने नहीं कोई पराया
स्वादिष्ट था हर घर का परांठा,
मिलजुल कर मनते थे उत्सव
लोकगीतों में झूम उठता गाँव सयाना।
समय बदला और परिवेश बदल गया
मेरा तेरा के फेर में घर बदल गया,
आधुनिकता के रंग-ढंग में रंग कर
गाँवों का कर्णप्रिय स्वर बदल गया।
ना बची बरगद की सघन शीतल छाँव
ना रुकी मनुष्य की कुटिल चाह,
ताल-तलैया, नदी सब ही सूख गए
फिर भी शिथिल नहीं हुए मानव के पाँव।
जब भी गाँव याद आया मुझे
बचपन का पल याद आया मुझे।
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जीवन की अविरल धारा गाँवों में ही बहती है। कंक्रीट के जंगलों में तो मनुष्यता कम मशीनें ज्यादा रहती हैं। जब सुख-सुविधाओं से सुसज्जित शहरी जीवन में अकेलेपन की बदरी घिर आती है तो हर किसी को अपना गाँव याद आता है, पर अब गाँव भी शहरी चमक-दमक से आच्छादित नजर आते हैं। लोगन के जीवन व्यवहार में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, जो कि मन को व्यथित करता है।