पराया हुआ मायका  विक्रम कुमार

पराया हुआ मायका

विक्रम कुमार

उसके हाथ से था वो बनाया हुआ मायका
उसकी ही चहक से चहचहाया हुआ मायका,
फिर एक दिन किसी के साथ हो विदा चली गई
एक पल में अपना से पराया हुआ मायका।
 

वो मायका जहाँ जन्म उसको दिया था मात ने
दुलारा था हरदम जहाँ था दादा-दादी तात ने,
वो मायका जहाँ पे वो पली-बढ़ी जवाँ हुई
खट्टी-मीठी यादों से पलभर में ही जुदा हुई,
बचपन से जवानी तलक बिताया हुआ मायका
एक पल में अपना से पराया हुआ मायका।
 

सखियों और सहेलियों के संग खेली थी जहाँ
दीवाली-पटाखे होली के रंग खेली थी जहाँ,
खुशियाँ थी बिखेरती परिवार की हँसी थी वो
घर के कोने-कोने में गहराई तक बसी थी वो,
उसके होने से सबल कराया हुआ मायका
एक पल में अपना से पराया हुआ मायका।
 

भाईयों-बहनों के संग बेबाकियों का दौर था
तनाव, गम, दुखों का कहीं दूर तक न ठौर था,
आते थे रिश्तेदार सब, और थे बुलाते सभी
भाते जो मन को सदा थे रिश्ते व नाते सभी,
मन से सारे रिश्तों को निभाया हुआ मायका
एक पल में अपना से पराया हुआ मायका।
 

आज जब चली तो जैसे रोने पूरा घर लगा
हो गई व्यथित जमीं और काँपने अंबर लगा,
कल तलक करते थे जो झगडे़ सभी रोने लगे
आँगन भी लगा रोने और कमरे सभी रोने लगे,
रुखसती पे लग रहा दुखाया हुआ मायका
एक पल में अपना से पराया हुआ मायका।
 

शायद न बुना जाएगा पहले सा ताना-बाना अब
जा रही ससुराल है वो जाने होगा आना कब,
ताकती हर मुँह है वो बेजुबानों की तरह
आ भी पाएगी तो अब मेहमानों की तरह,
शादी की डोर के लिए गँवाया हुआ मायका
एक पल में अपना से पराया हुआ मायका।

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