बदन की तपन Surya Pratap Singh
बदन की तपन
Surya Pratap Singhसुब्ह-ए-मगरूर होकर फिरते थे
अभी तो गर्मी है जवानी की,
पर अब सुबह से शाम तक
उफ ये छीक और खाँसी।
बदन की तपन उफ!
और ये कँपकँपी,
लगता है बदलते मौसम से
आँख मिलाने की हिमाकत कर बैठे हैं।
पड़े हैं बिस्तर पर
ओढ़े हुए कम्बल,
न जाने क्या झलकता है मेरे चेहरे से,
ये मौसम मुझको आज़माना चाहता है।