प्रेम-समिधा  Hrishita Singh

प्रेम-समिधा

Hrishita Singh

जब तमस मन में भर रहा था
और मन अनायस डर रहा था,
तुम्हारे स्मृति चिन्हों को सहेजे
मैं पत्र तुम्हारे पढ़ रही थी,
जिस जगह पर लिखा था प्रेम
उँगलियाँ उस पर धर रही थी।
 

ध्वनि गूँज रही थी तेरी मुझमें
और मैं तुझमें खो रही थी,
प्रतिबिंब उतरा था उसमें तुम्हारा
मैं तकिया कोई थी भिगो रही थी।
 

अंक में भर लूँ तुमको अपने
कुछ सपने ऐसे संजो रही थी,
चिंतन में प्रिय तुम्हारे
मैं शून्य जैसे हो रही थी।
 

प्रेम योग है तपस्या है साधना है
और मैं सिद्ध इसमें हो रही थी,
विरह की अग्नि में जलकर मैं
प्रेम समिधा हो रही थी।

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