हिन्द का प्रतिशोध  RAHUL MAHARSHI

हिन्द का प्रतिशोध

RAHUL MAHARSHI

स्वर्ग समान घाटी थी संकुल
हर्ष स्वर सर्व दिग छाया था,
कुटुंबी क्रीड़ा-कोलाहल को ग्रसने
श्वान समूह घुस आया था।
 

रक्त बन सिंदूर बहा
लाल हुई लम्बोदरी,
हाए! सम्पूर्ण जगत ने सुनी
नववधुओं की आर्तध्वनि!
जिस कर शोभती थी मेंधिका
वह हुआ सुहाग शोणित रंजित,
राष्ट्र के रिपु हों दंडित
नहीं इसमें संशय किंचित।
 

आसन, अक्षत, आचमन, आवाह्न,
अक्षौहिणी को आर्यावर्त देता है,
नरेश्वर नृप ने शत्रु नीर हरा,
अरी अब तक, क्यों श्वास लेता है?
गंजन करो अधर्मी का
धर्म पूछ के जिसने मारा था,
हाए रूदन-क्रंदन का शूल
हिन्द हृदय में उतारा था।
 

दुन्दुभिनाद, शंख नाद संग,
जब मिले प्रस्थानशब्द,
दशों दिशाएँ हों विचलित,
जग सम्पूर्ण हो जाए स्तब्ध।
वेपते वक्ष, बाहु में कम्पन,
शत्रु अर्ध ध्वस्त यों ही हो जाएगा,
और जो भी शेष रहा
पिनाक बाण न सह पाएगा।
 

भारतीय सेना की कल्पना मात्र से
दुरबुद्धि दानव थर-थर काँपते हैं,
परन्तु फिर भी न जाने क्यों
अपने सामर्थ्य को अधिक,
दरिद्रता को न्यून आँकते हैं?
 

भिक्षुक बन जगत में थाल फैलाएँ,
वो जो जनक समक्ष गाल बजाएँ,
ऐसे कलंकित कुपूत के कृत्रिम
अणु दंश कर देना कुंठित,
अंतिम समर की बेला है यह,
भू-भाग भी लाना जो है लुण्ठित।
 

कुछ करबद्ध खड़े, कुछ करताल करे,
कुछ कर-कर श्रृंखला जोड़ रहे,
रणभूमि की राह निष्कंटक करने
सब लोकजन हैं निकल पड़े।
हे भारतवर्ष के भू-रक्षक!
हे उच्चतम शौर्य के दीपस्तंभ!
हे राष्ट्र-शत्रु के नरसिंह!
विध्वंस करो आतंक स्तंभ।
 

देश की शांति-समृद्धि पे
कोई नेत्र फिर से उठे ना,
जय-जय-जय भारत माता,
जय-जय, हिन्द की सेना।

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