गाँव से शहर की दूरी Hrishita Singh
गाँव से शहर की दूरी
Hrishita Singhशहर आया था मेरे गाँव,
गाँव नहीं गया था
शहर तक।
आधुनिकता की जंजीर पहनाई,
विकास का फंदा लगाया
और घोंट दिया गला गाँवों का।
रेल बनाई, रेल के डिब्बे बनाए
और डिब्बों में कैद इंसान बनाया,
जो भाग रहा शहर की ओर
उस विकास और आधुनिकता के गुलाम बनकर।
यहाँ पर बनी हुई है एक सड़क
जो पहुँचा रही है उन्हें शहर,
यहाँ लगाए बिजली के तार,
तारों में उलझी ज़िन्दगियाँ,
और इनमें दम तोड़ता गाँव।
गाँव से शहर दूर था
और शहर से गाँव बहुत दूर।
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इस कविता की पृष्ठभूमि भारत के बदलते सामाजिक परिदृश्य को दर्शाती है, जहाँ तथाकथित "विकास" और "आधुनिकता" के नाम पर गाँवों की आत्मा को धीरे-धीरे नष्ट किया जा रहा है। गाँव, जो कभी आत्मनिर्भरता, सामूहिकता और प्राकृतिक जीवन के प्रतीक थे, अब शहर की चकाचौंध और ज़रूरतों की दौड़ में गुम होते जा रहे हैं। एक ओर गांव की जड़ें हैं, जो अब भी ज़मीन से जुड़ी हैं, और दूसरी ओर शहर की मशीननुमा रफ्तार, जो इंसान को 'डिब्बों में कैद' कर देती है। ‘विकास का फंदा’ और ‘आधुनिकता की जंजीर’ जैसे प्रतीकों के माध्यम से कविता इस बात की ओर इशारा करती है कि हम भौतिक प्रगति के चक्कर में अपने अस्तित्व के मूल तत्व - प्रकृति, शांति, और सादगी - को खोते जा रहे हैं।
