मिलनी Sunil bansal
मिलनी
Sunil bansalबच्चों ने घर-बार बसाया,
अपने सपनों का संसार रचाया।
आपने अपना फ़र्ज़ निभाया,
हमने भी अपना फ़र्ज़ निभाया।
फिर हमारे बीच यह अंतर कैसे?
और आप ऊँचे और हम नीचे कैसे?
मैं भी बेटी का पिता,
तुम भी बेटी के पिता।
आज नहीं तो क्या फर्क,
कल क्या पता आपका बेटा
हो, एक बेटी का पिता।
आपने अपने बेटे को काबिल बनाया,
हमने बेटी को सुशील और लायक बनाया।
हम आपके चरणों में झुकें कैसे?
तुम भी बेटी के पिता,
मैं भी बेटी का पिता।
आज नहीं तो क्या फर्क,
कल क्या पता मेरा बेटा
हो, एक बेटी का पिता।
आज मैंने आपसे पैसा लिया,
कल मैंने किसी को पैसा दिया।
फिर इस लेन-देन में
कौन सा किसी का घर भरा?
बस लाचार माता-पिता का
समाज ने खून ज़रूर पिया।
दोनों परिवार जब भी मिले,
दिल खोलकर पूरे दिल से मिले,
ताकि दोस्ती का रिश्ता आगे बढ़े।
मगर ये मेरी समझ से परे
कि जब भी हम मिले,
आप हमारी हथेली पर
कुछ कागज़ के टुकड़े धरे।
कैसे यह मेरा जमीर मरे,
कि आपके पैसे से हम अपनी जेब भरे?
तो फिर क्यों न आइए,
झूठी इज्जत की खरीददारी को बंद करें।
और मिलकर एक गरीब इंसान के
सिर से कुछ बोझ कम करें।
और फिर क्यों कोई शर्म करें?
बल्कि एक बेटी का पिता होने
पर हम सब क्यों न गर्व करें!
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यह कविता बच्चों के पालन-पोषण की साझा जिम्मेदारियों और समान गर्व को दर्शाती है, विवाह संबंधों में वित्तीय लेन-देन के सामाजिक दबावों को तोड़ने का आह्वान करती है। यह परिवारों के बीच एकता और आपसी सम्मान की वकालत करती है, बेटियों के माता-पिता होने पर गर्व करने पर ज़ोर देती है, बिना किसी भेदभाव के। आखिर क्यों लड़कों के माता-पिता को लड़कियों के माता-पिता से धन लेना चाहिए?