सृजन और संहार Pratham Bhala
सृजन और संहार
Pratham Bhalaकोयले को कोई जलाकर राख बना देता है,
और कोई उससे हीरों का अलंकार सजा देता है।
किसान की भूख जीवन का संचार करती है,
मगर शिकारी की भूख किसी का संहार करती है।
वर्षा जो प्यास बुझाती है, जीवन को उपजाती है,
वही अगर बाढ़ का रूप ले ले, तो जीवन का काल बन जाती है।
हवा जो प्राणवायु बनकर जीवन को चलाती है,
वही अगर तूफ़ान बन जाए, तो विनाश मचाती है।
विकास के पहिए कभी विनाश का रथ चलाते हैं,
रक्षा करने वाले कभी खुद भक्षक बन जाते हैं।
विज्ञान जो समाज को तरक्की की राह दिखाता है,
वही हथियार बनाकर विनाश के काम भी आता है।
हर शक्ति के दो चेहरे होते हैं,
हर भूख दो कथाएँ कहती है।
एक में सृजन की गूँज सुनाई देती है,
दूसरी में संहार की छाया रहती है।
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यह कविता उन विरोधाभासों को उजागर करती है जो हर तत्व, हर शक्ति और हर साधन में छिपे होते हैं। एक ही वस्तु या प्रयास, किसी के हाथों में सृजन का स्रोत बन सकता है और किसी और के हाथों में विनाश का कारण। कोयले हीरा भी बन सकता है और राख भी; वर्षा जीवन भी देती है और बाढ़ का प्रकोप भी। यही द्वंद्व मानव सभ्यता और प्रकृति का एक अटल सत्य है—जहाँ हर शक्ति अपने साथ सृजन और विनाश दोनों की संभावना लेकर आती है।