कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 1 रामधारी सिंह 'दिनकर'

कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 1

रामधारी सिंह 'दिनकर' | वीर रस | आधुनिक काल

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,
रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये
बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!
व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,
काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर।
और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास
हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।
 

श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।
देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"
चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।
 

"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,
छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;
छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;
और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,
चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-
विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,
जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?
 

"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?
ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है?
लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन?
और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर
नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?
कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?
उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?
 

"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता।
और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,
भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।
 

"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;
उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और
पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;
और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;
सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।

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