भिक्षा बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
भिक्षा
बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' | शृंगार रस | आधुनिक कालभर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर,
विश्व-वेदना के कल जल से
आप्लावित कर दो अभ्यंतर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।
छलका दो मेरी वाणी में
अचर-सचर की विगलित करुणा
समवेदना-भावना से तुम कंपित
कर दो यह हिय थर-थर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।
नभ-जल-थल से अनिल-अनल में
करुण मोहिनी छवि दिखला दो,
पुलक-पुलक बह आने दो, प्रिय,
मेरे नयनों का लघु निर्झर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।
इठलाते कुसुमों का मादक
परिमल मन-नभ में फैला है,
अपनी निर्गुण गंध-किरण से
चिर निर्धूम करो मम अंबर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।
मेरी मुग्धा व्यथा परिधिगत
हुई - उसे नि:सीम बना दो,
मुक्त करो, प्रिय, मुक्त करो मम
करुणा-वीणा के ये सुस्वर
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।
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परिचय
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