बदरिया गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

बदरिया

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' | अद्भुत रस | आधुनिक काल

घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

तप्त हृदय की ताप सिरानी,
हुई मयूरों की मनमानी ।
देखो जिधर उधर ही पानी,
भरती सर सरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

श्यामा-सी इठलाती आई ।
लतिकाएँ लहराती आई ।।
श्याम रंग दरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

वन कुंजें वह फूलों वाली ।
कालिन्दी वह कूलों वाली ।।
सावन की छवि झूलों वाली,
बिन देखे तरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

देख नहीं वह शोभा पाती,
अविरल अश्रु धार बरसाती ।
हृदय तड़पता जलती छाती, 
विरह-ज्वाल झरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

आई चली सवार हवा पर,
कलियुग को समझी थी द्वापर ।
रोई-धोई क्या पाया पर,
गई हाय ! मरती रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

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