जिजीविषा Prashant Kumar Dwivedi
जिजीविषा
Prashant Kumar Dwivediआहों से लिपटी ख्वाहिशें,आंसू से भीगे सपने हैं।
कुछ औरों से पाए हमने ,कुछ दर्द हमारे अपने हैं।।
धुल गए बरसते सावन में खुशियों के वो रंग सुनहरे।
आज़ाद हुए कुछ ऐसे कि डाल रहे हैं खुद पर पहरे।।
हाय! थामे उसके हाथों को सागर का तट घूम न पाए ।
दो पग बढ़कर हिम्मत करके उसकी पलकें चूम न पाए ।।
इन दर्दों को बेबाक समेटे आँखें तो नम अब भी हैं।
पर हँसते तो हम अब भी हैं
और हँसते तो हम अब भी हैं ।