वो जो इक चाह Prashant Kumar Dwivedi
वो जो इक चाह
Prashant Kumar Dwivedi"वो जो इक चाह घुटी है मन में
वो जो इक बात थक गई थी कभी ,
दिल से होठों तक का सफ़र तय करने में
वो जो टूटी हुई ख्वाहिश है सांसो से बंधी
एक सूरत जो मेरी रूह को है कैद किये
एक आह जिसने छीना मेरा भोलापन
वो मेरा प्यार जो मेरी आँख के पानी में घुला
लोग जिसको आंसू भी कहा करते हैं
इन दर्दों से कुछ गीत निचोड़े मैंने
जिनके सुनाने मुझे तारीफें मिला करती हैं
और मेरे होठों पे तड़पती हुई मुस्कान सी आ जाती है
तभी मेरा आइना पूछ लेता है मुझसे
कि ये मुस्कान है या बेमानी
और मै उससे मुस्कुरा के कहता हूँ
"मै खुश हूँ ......बहुत खुश "
तभी मेरी आँखों से सच छलक जाता है
और एक बेहल सवाल भी कि
"मैं खुश हूँ ........शायद"
क्या वाकई ?"