कलम भी रोती है Prashant Kumar Dwivedi
कलम भी रोती है
Prashant Kumar Dwivedi"चाँद पिघलता हो जैसे ,
इक नशा टूटता हो जैसे
फलक बिखरता सा लगता है ,
शायद नींदों के गुलशन में ,
मासूम ख्वाब जो पनपे थे ,
वो पलकों की कोरों से रिसते हों,
या किसी हरी डाल की ऐंठन हो ,
हूक हो ,कुंठा हो जो रुंधे कंठ में घुटती हो ,
या फिर कोई शांत अकेली उदास झील हो ,
जो कंकर भर हल-चल को तरस रही हो,
हो सकता है मेरा ही मन हो ,
जो खुद में ही कुछ खोजते -खोजते भटक गया हो ,
ये आंसू हो ना हो ,तन्हाई हो ना हो ,
तलाश हो ना हो ,
लेकिन पीड़ा तो है ,
लिखना तो होगा ही
उफ्फ !कलम भी रोती है
आह !................