एक अलिखित कविता Prashant Kumar Dwivedi
एक अलिखित कविता
Prashant Kumar Dwivediमैं तुम्हारी
अलिखित कविता हूँ,
हे कवि! नेपथ्य से मैं चीखती हूँ,
कब मुझे तुम
कामिनी कंचन देह के उभरे मांसों
की विकृत वासनामयी श्रृंगार-कथाओं से,
मासिक-धर्म और भ्रूण में कटती कलियों
की व्यथाओं तक,
ले चलोगे !
कब मुझे तुम
चुम्बनों के अनुभवों,कुचों की मसलन की
क्षणिक उत्तेजनाओं से
उन सिसकियों तक ले चलोगे
जो कि अपनी बलितकृत दुधमुंही बच्ची
को गोदी में लिए आहत हो
बैठी हैं !
कब मुझे तुम
दरबारी रागों से,ठकुरसुहाती उन्मादी
अभिव्यक्ति से उस सूखे से गाँव तक
ले चलोगे
जहाँ वह भूखा किसान
खेत की मेड़ पर बैठा अकेला चीखता है !
कब मुझे तुम
इन विकृत निर्मम धर्मों
के आराध्यों की आरती के दीपक से
उन अंधेरों तक
ले चलोगे
जो कि दंगों में जली बस्ती के सन्नाटे में है !
कब मुझे तुम
रजनीगंधा की खुशबू से
उस श्मशान की लाशों से उठती
बजबजाती बदबू तक
ले चलोगे
जहाँ किसी मंदिर की आरती
या मस्जिद के अजान के लिए
इतने इंसान कट मरे हैं कि
न दफ़नाने को जगह है और न ही
जलाने को लकड़ी !
मैं तुम्हारी ही अलिखित कविता हूँ,
हे कवि! नेपथ्य से मैं चीखती हूँ।"-
