हे कवि ! मुझे बताते रहना Prashant Kumar Dwivedi
हे कवि ! मुझे बताते रहना
Prashant Kumar Dwivedi"मैं समाज अस्तित्वहीन हूँ,बिना तुम्हारी अभिव्यक्ति के।
बांध न लें कहीं पाश मुझे,सत्ता लोलुप आसक्ति के।
मैं जड़ हूँ,अक्सर मैं एक जगह बंध जाता हूँ,
नहीं कोई चेतनता मुझमे,बिना लेखनी की शक्ति के।
कैसे हो उद्धार मेरा,हे कवि!मुझे बताते रहना
कर्तव्य मेरे अधिकार मेरा,हे कवि!मुझे बताते रहना
राजनीति जब देश नहीं,स्वार्थों का प्रतिमान बने।
सिंहासन जब भूखी-ऐंठी आँतों से अनजान बने।
राजसभा की चर्चा जब चरणवंदना बन जाये,
मन्त्री सारे भक्त बने,शासक जब भगवान् बने।
भ्रष्ट हो जब आचार मेरा,हे कवि ! मुझे बताते रहना।
कर्तव्य मेरे,अधिकार मेरा,हे कवि! मुझे बताते रहना।
जब धर्म शांति का मार्ग छोड़,कट्टर-कर्कश हो जाएँ।
जब उन्मादों की मूर्च्छा में,सन्त पुरुष भी सो जाएँ।
जब दो गज की भूमि हेतु हत्याएं व शीलभंग हों,
सौहार्द्र के वाही भी,जब खून के प्यासे हो जाएँ।
तब न्यायोचित व्यवहार मेरा,हे कवि! मुझे बताते रहना।
कर्तव्य मेरा,अधिकार मेरा,हे कवि! मुझे बताते रहना।"