अंतरात्मा का न्याय  Prashant Kumar Dwivedi

अंतरात्मा का न्याय

Prashant Kumar Dwivedi

"अंतर्मन की न्यायपीठ की स्पष्ट कटु ये वाणी सुन लो।
तटस्थ नहीं कोई एक पक्ष,सोच समझ करके चुन लो।

संकट भी यही साधन भी यही।
और निर्णय का है क्षण भी यही।

इस बार हठीली आँखों ने स्वप्नों में देखा क्या है।
चंचल संवेदी मन की मर्यादा की रेखा क्या है।

उमंगों और अवसादों में।
वादों और प्रतिवादों में।

ईर्ष्यालु और प्रतियोगी में।
जोगी में और भोगी में।

अहंकार और स्वाभिमान में।
आत्म-मुग्धता,आत्म-ज्ञान में।

ढूंढ के अंतर लाना होगा।
स्वयं से आँख मिलाना होगा।

हाँ सच अपराधी और भी होंगे।
इस दण्ड के भागी और भी होंगे।

पर अपने हिस्से का निर्णय तो तुमको जीना होगा।
अमृत या विष जो भी मिले,दोनों सहर्ष पीना होगा।

कितने भी ऊँचे उठ जाओ,ईश्वर से नीचे तक होगे।
सारे आडम्बर जीकर भी सच के आगे नतमस्तक होगे।

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