पैर तो कबके थके Prashant Kumar Dwivedi
पैर तो कबके थके
Prashant Kumar Dwivedi"पैर तो कबके थके,दर्द ही चलते रहे हैं।
दीप तो कबके बुझे प्राण ही जलते रहे हैं।
ह्रदय की अभिव्यक्तियाँ तो ह्रदय में ही घुट गयीं,
मौन ही मुखर होकर गीत में ढलते रहे हैं।
हा! परायों को सदा जैसे भी थे स्वीकार्य थे,
प्रियजनों की आँख में ही सदा खलते रहे हैं।
अग्नि-परीक्षाएं सदा वैदेहियाँ देती रहीं,
अहिल्याओं को सदा इंद्र ही छलते रहे हैं।
इन विषमताओं और बाधाओं से हम क्यों डरें,
तिमिर के ही पाश में जुगनूं सदा पलते रहे हैं।